एक नदी बहुत दिनों से खोई थी,
कुछ पत्थरों, कंकड़ों पर सोई थी ।
फल की आशा भी नहीं कोई थी,
क्योंकि याद नहीं बीज क्या बोई थी ॥
तभी सूरज ने धरा को और तपाया,
जल-श्रोत सुखाए, बूंद-बूंद को तड़पाया ।
सूर्य-रश्मियों ने पवन को भड़काया,
जल-जल कर पेड़ों ने भी ताप बढ़ाया ।।
हो गर्म सिंधु-जल, बनने लगा भाप,
मनो आज लगा उसे लक्ष्मण का श्राप ।
उठने लगा वाष्प मनो आकाश लेगा माप,
बनकर मेघ हरेगा, धरा, सिंधु के पाप ।।
मेघ हुआ द्रवित देख दु:ख धरा के,
बहने लगा नयन से नीर भर-भरा के।
चोटिल धरती पर पड़ी बूंदे छर-छरा के,
छिप गया सूरज, गर्जा मेघ उसे हरा के ॥
वर्षा बूंदे जब पड़ने लगी भयानक,
अचंभित सोई नदी तब जगी अचानक ।
किसको माने वो अपने भाग्य का उद्धारक,
सूर्य ने ही सुखाया और वही वर्षा का कारक ॥
कभी तो लगता प्रकृति भी करती छल ,
दु:ख मिलता उसको जो रहता निश्छल।
फिर अचानक सब दूर अगले ही पल,
नहीं समझते हम, क्या कर्म क्या फल ।।
सर, इन पंक्तियों से आपने गहरी मानवीय भावनाओं और जीवन की जटिलताओं को व्यक्त किया है। इसके अलावा, प्रकृति के साथ हमारे जुड़ाव को खूबसूरती के साथ लिखा है जो जीवन के समझने में मदद करता है