आँखों पर पट्टी खुद से बांध डाला,
फ़िर निकला घर से सब भूला-भाला।
मैं चकित, क्यों है सब काला-काला,
कहाँ रह गया सूरज? कहाँ है उजाला?
गर है अभी रात, तो ये शोरगुल कैसा?
कौन है जो चीखा, चिल्ला रहा भूतों जैसा।
खो गया उन गलियों में और डरा मैं ऐसा,
न हुआ कभी साथ मेरे, न मैंने सोचा वैसा॥
अंधेरे में भटकते-भटकते, मैं लड़खड़ाया,
तभी कोई आया, देकर सहारा मुझे उठाया।
पूँछा, बांधकर पट्टी तू क्यों दिन में आया,
मैं पूँछा, “कौन सी पट्टी?” तो वो खिलखिलाया ।।
कहा मैंने, अब बस करो तुम मूर्ख बनाना,
रात-दिन का पता मुझे, नहीं बातों में आना।
उसने बार-बार कहा, एक बार पट्टी तो हटाना,
मैंने अड़कर कहा, अब मेरे पास मत आना ।।
हँसता-मुस्कुराता, किसी तरह वह गया,
मैंने सोचा, रात में घूमता ये पागल नया।
थोड़ा ही था चला, कि मैं फिर भटक गया,
गिर पड़ा झाड़ी में, पर्दा काँटों में अटक गया ।।
फटे परदे से मैं, थोड़ा-थोड़ा देख पाया,
निकला था सूरज, उजाला था छाया ।
धीरे-धीरे उठा, मुझे सब याद आया।
ये पर्दा तो आँखों में, मैंने ही लगाया ।।
हम सभी बांधकर पट्टी हैं भटकते,
गिरते हैं, पड़ते हैं, यहाँ वहाँ अटकते।
सच बताने वाले बहुत हैं खटकते ,
कोई सिखाए, समझाए तो उसे झटकते ।।
थक जाएंगे जब खुद को छलते-छलते ,
उस दिन गिर पड़ेंगे ऐसे ही चलते-चलते।
कहेगा सूरज ऊपर आसमां में जलते-जलते,
दिखती है सच्चाई, चाहे दिखे उम्र ढलते-ढलते॥